कल पूरी
नगरी “गणपत्ति बाप्पा मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ” इस नाद से झूम रही थी I ढोल ताशे और उसपर थिरकते युवा कदम, मदहोश करनेवाला
समां था I
बारिश
का मौसम आते ही हमारे यहाँ उत्सव का दौर शुरू हो जाता है I भारतीय समाज बहुत उत्सव
प्रिय है I उत्तर से दक्षिण तक कई सारे एक जैसे उत्सव मनाये जाते है, बस मनाने की विधि और नाम में कुछ फर्क होता है I आज भी हमारे देश की ८० प्रतिशत आबादी खेती पर अवलंबित है और ये सारे उत्सव कहीं ना कहीं उसी से
जुड़े हुए है I हमारा समाज उसी के आस पास सदियों से बंधा हुआ है I पर आज सब कुछ बदल
रहा है I सामाजिक परिवर्तन बहुत कुछ हो रहे है पर फिर भी इस परिवर्तनों की गति बहुत धीमी है I पुरानी बात / प्रथा कहकर आज भी बहुत सी बातें नयी पीढ़ी पर
थोपी जाती है, या उनका अनुकरण करना है इस
लिए बस समाज उसे अपने संग बांधे रखा है I पर क्या हम कभी सोचते है ? क्या सही या
गलत है ?
हम सब ऐसी बातें क्यूँ नहीं अपना पाते हैं, जो तार्किक कसौटि पर खरी उतरती है ? गणेशा
को बुद्धि का नायक बोलते है पर आज का सार्वजनिक रूप देखके लगता है कि वो बुद्धि कहीं पर उधार रखकर हम उत्सव मना रहे हैं I
मुझे आज
भी १९९५ की घटना याद है जिस दिन गणेशजी के दूध पिने की अफवाह पुरे देश मे फैली थी I
शहर के शहर, गांव के गांव किस तरह गणेशा को दूध पिलाया जाय, इस होड़ में लगे हुए थे I जो लोग भीड़ की वजह से, मंदिर मे अपना
नंबर नहीं लगा पाए, वो घर मे ही गणेशा को दुग्धपान करवाने में व्यस्त थे
I और उनमें हर कोई (चाहे वो मूर्ति फिर पीतल की हो या चांदी की क्यूँ ना हो) ये बताने मे
कम नहीं थे की किस तरह गणेशा ने उनके हाथो से दूध पिया I इस भीड़ मे हमारे जाने माने
नेतालोग भी शामिल थे I
वैज्ञानिक
इस बात को तार्किक रूप से विश्लेषण भी किये, पर उनकी बातों को कौन सुने I
अन्धविश्वास हमेशा ही बहस का कारण रहा है I पर जन-समाज किस तरह तार्किकता छोड़ के एक
गलत बहाव मे बहता है उसका ये छोटा सा उदहारण है I और ये समाज के लिए
बहुत गहरे चिंतन की बात है I
इसलिए आज बाप्पा से प्रार्थना है
- हे गणनायक, जाते जाते अपने भक्तो को थोड़ी सी सुबुद्धि प्रदान करो ताकी अगले बरस जब
आप फिर से आओ तो आपके आने के साथ कुछ सामाजिक प्रगति भी हो I
मंगल मूर्ति मोरया .... अगले बरस
तू जल्दी आ I