शायद इसलिए हूँ मजबूर ।
गढता हूँ मैं ही कल-आज,
फिर भी ठुकराता समाज ।
मेरे भी है सपने कुछ,
है मेरे भी अपने कुछ ।
बस रोटी और दाल मिले,
काम मुझे हर साल मिले ।
पेट में खाना, दिल को चैन,
सपने देखते हैं नैन ।
महलों की ना चाहत मेरी,
छोटी सी है राहत मेरी ।
झोपड़े पर एक तिरपाल,
मिले दिहाड़ी, मालामाल ।
इसलिए खटता हूँ दिन रात,
सोलह घंटे, दिन है सात ।
अपना बेटा पढ़ लिख जाय,
डॉक्टर वकील कुछ बन जाय ।
बेटी की भी हो जाय शादी,
मेरी पत्नी बन जाय दादी ।
अपनी किस्मत, अपना हाथ ।
हुज़ूर,
बस आपकी,
दुआ हो साथ !
श्रमिकों की महत्ता को समर्पित यह पोस्ट सारगर्भित अर प्रशंसनीय है।
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
साहित्यकार-महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
मजदूर कितना मजबूर ......जी तोड़ मेहनतकश यह तबका समाज और सभ्यता के निर्माण का बहुत बड़ा हिस्सा है ....बहुत उम्दा
ReplyDeleteचिन्मयी को बहुत प्यार
यहाँ भी पधारें ...
विरक्ति पथ
बहुत शानदार,,,
ReplyDeleteसुन्दर जमीनी कविता -
ReplyDelete(ये भयानक आँखें कब पीछा छोड़ेंगी ? :)
वाह बहुत ही सुंदर.... मजदूर की व्यथा भी .... मजदूर की कथा भी....
ReplyDeleteसब कुछ है इस रचना में.....
आप सभी का शुक्रिया ....
ReplyDelete@ मोनिका जी धन्यवाद ...
यही तो आज के मजदूर कि व्यथा है ....
हुज़ूर,
ReplyDeleteबस आपकी,
दुआ हो साथ !
वो सुबह कभी तो आयेगी...
बहुत सुन्दर रचना!
@Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
ReplyDeleteउस सुबह का तो इन्तजार है :)
सुंदर रचना है आपकी. शीर्षक में द के नीचे बड़े ऊ की मात्रा लगाएं तो बढ़िया रहेगा.
ReplyDeleteमहलों की ना चाहत मेरी,
ReplyDeleteछोटी सी है राहत मेरी ।
झोपड़े पर एक तिरपाल,
मिले दिहाड़ी, मालामाल ।
इसलिए खटता हूँ दिन रात,
सोलह घंटे, दिन है सात.....
उस सुबह पर सुंदर रचना है आपकी.....!
बहुत सुन्दर रचना है जी !
ReplyDeleteहमारी दुआ साथ है जी।
ReplyDeleteअच्छी भावना के साथ लिखी कविता है आपकी।
majdoor ki majboori hai
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुती
ReplyDeleteSatish Kumar Chouhan
Bhilai
कभी फुरसत मिले तो क्लिक करे
http://satishchouhanbhilaicg.blogspot.com
http://satishmuktkath.blogspot.com/
http://satishkumarchouhan.blogspot.com
अच्छी प्रस्तुती
ReplyDeleteSatish Kumar Chouhan
Bhilai
कभी फुरसत मिले तो क्लिक करे
http://satishchouhanbhilaicg.blogspot.com
http://satishmuktkath.blogspot.com/
http://satishkumarchouhan.blogspot.com
सुन्दर रचना.
ReplyDeleteऔर प्लीज़ काजल कुमार जी की बात मान लीजिये.
आप सभी का धन्यवाद !
ReplyDelete@काजल कुमारजी
हमने आपकी बात मन ली है ...धन्यवाद !
अपनी किस्मत, अपना हाथ ।
ReplyDeleteबहूत ही सुंदर अभिव्यक्ति!!
मजदूरों की इन्ही इछाओं की दूखती रग पकड कर लोग नेतागिरि करते है।
श्रम और श्रमिक दोनों को नमन. बहुत ही सुन्दर रचना है. .
ReplyDelete...मजदूर की जीवनी का वास्तविक चित्रण...बहुत सुंदर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति!!
ReplyDeleteमजदूर सा प्रयास।
ReplyDeleteWah!
ReplyDeleteझोपड़े पर एक तिरपाल,
ReplyDeleteमिले दिहाड़ी, मालामाल ।
इसलिए खटता हूँ दिन रात,
सोलह घंटे, दिन है सात.....
उस सुबह पर सुंदर रचना है आपकी.....!
बहुत पसन्द आया
ReplyDeleteहमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
बहुत देर से पहुँच पाया .........माफी चाहता हूँ..
nice
ReplyDeleteहमारी भी यही प्रार्थना है ईश्वर से।
ReplyDelete...sundar rachanaa !!!
ReplyDeleteएक मजदूर के मासूम से सपने----दिल है छोटा सा, छोटी सी आशा।
ReplyDeleteबहतु अच्छे ... वाह..
ReplyDeleteमेहनतकश की पीड़ा को अच्छी तरह बयान करती कविता ...!
ReplyDeleteअपनी किस्मत,अपना हाथ
ReplyDeleteफ़िर भी मेरी दुआ
है आपके साथ कि आपके
सर हो "उसका" हाथ...
छोटे छोटे सपने लिए मजदूर ( आम आदमी ) कि ख्वाहिशें ...बहुत अच्छी तरह कविता में पिरोई हैं ..
ReplyDeleteएक मजदूर की पीड़ा को खूब समझा है ,सुंदर अभिव्यक्ति ,मेरे ब्लॉग पर आने का शुक्रिया ।
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत ही ख़ूबसूरत और भावपूर्ण कविता! शानदार प्रस्तुती !
ReplyDeletecoral..badhai aapko ki aapne bahut hi saral shbdon mein vytha ko ukera hai..keep it up!
ReplyDeleteआपकी निर्मल भावनाओं को व्यक्त करती , सुंदर भावों से सजी सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDelete